भारतीय संस्कृति में श्राद्ध केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्माओं के साथ गहरे संबंध का सेतु है। शास्त्रों में वर्णित है कि –
“सूक्ष्म जगत के लोगों को हमारी श्रद्धा और श्रद्धा से दी गयी वस्तु से तृप्ति का अनुभव होता है।”
जब पितर तृप्त होते हैं तो बदले में वे हमें सहायता, प्रेरणा, प्रकाश, आनंद और शांति प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, घर में संतान का जन्म होने पर भी वे उत्तम आत्माओं को भेजने में सहयोग करते हैं। यही कारण है कि श्राद्ध को हमारे धर्मशास्त्रों में पितृऋण से उऋण होने का महान अवसर कहा गया है।
काँग्रेस का बिखराव और मालवीयजी की प्रेरणा
आज़ादी से पूर्व भारत की काँग्रेस पार्टी आपसी खिंचाव और अंग्रेजों की चालों के कारण बुरी तरह बँट चुकी थी। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा था कि स्वतंत्रता आंदोलन का दीपक बुझने ही वाला है।
ऐसे कठिन समय में महामना मदनमोहन मालवीय जी, जिनका योगदान भारत की स्वतंत्रता में अनुपम रहा है, अधिवेशन छोड़कर एकांत में चले गये। उन्होंने तीन आचमन करके ध्यान लगाया और अंतःप्रेरणा से श्रीमद्भागवत का प्रसिद्ध प्रसंग ‘गजेन्द्रमोक्ष’ का पाठ किया।
थोड़ी देर बाद जब वे बाहर आए और सत्संग प्रवचन दिया तो सभी काँग्रेसी नेताओं का तनाव दूर हो गया। जो नेता आपस में बिखरे थे, वे एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो गए। यही एकता आगे चलकर अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर गई।
मालवीयजी के जन्म की पृष्ठभूमि
अब प्रश्न उठता है – मालवीय जी जैसे तेजस्वी और राष्ट्रनायक का जन्म हुआ कैसे? इसके पीछे भी श्राद्ध का ही एक अद्भुत रहस्य छिपा है।
उनके पिता एक धार्मिक कीर्तनकार थे। एक बार जब अंग्रेजों ने आंदोलन के समय कर्फ्यू लगा रखा था, वे कथा करके घर लौट रहे थे। मार्ग में अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें रोका और परेशान करना शुरू किया। भाषा की बाधा के कारण संवाद संभव नहीं था।
तभी उन्होंने अपना वाद्ययंत्र निकाला और कीर्तन गाना प्रारम्भ किया। कीर्तन की धुन सुनकर अंग्रेज सैनिक प्रभावित हो गए और न केवल उन्हें छोड़ दिया बल्कि सुरक्षित घर तक पहुँचा भी दिया।
इस घटना से उनके मन में विचार आया कि – “मेरे कीर्तन से तो कुछ अंग्रेज प्रभावित होकर बदल गए, परंतु मेरे करोड़ों देशवासी अभी भी शोषण झेल रहे हैं। मुझे इनके लिए कुछ करना चाहिए।”
गया में किया गया श्राद्ध और अंतिम प्रार्थना
कुछ समय बाद वे गया जी पहुँचे और अत्यंत प्रेम से पितरों का श्राद्ध किया। श्राद्ध पूर्ण होने पर उन्होंने अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए और भावपूर्ण प्रार्थना की –
“हे पितरो! यदि मेरे पिंडदान से आप तृप्त हुए हों, यदि मेरा किया हुआ श्राद्ध आप तक पहुँचा हो तो कृपा करके मेरे घर ऐसी संतान भेजना जो अंग्रेजों को भगाने का कार्य करे और मेरा भारत माँ आज़ाद हो जाए।”
उनकी यह प्रार्थना स्वीकार हुई। समय बीता और उनके घर जन्म हुआ महामना मदनमोहन मालवीय जी का—जिन्होंने जीवनभर भारत माता की स्वतंत्रता और संस्कृति के उत्थान के लिए कार्य किया।
यह प्रसंग हमें सिखाता है कि –
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श्राद्ध केवल पितरों को अर्पित कर्मकांड नहीं, बल्कि आशीर्वाद और शक्ति प्राप्ति का अद्भुत साधन है।
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पितृकृपा से ही परिवार में उत्तम संतान और मंगलमय परिस्थितियाँ आती हैं।
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जब मन में सच्ची श्रद्धा और राष्ट्रप्रेम हो, तो साधारण प्रार्थना भी इतिहास बदल सकती है।
मालवीय जी का जन्म इस सत्य का जीवंत प्रमाण है कि श्राद्ध की महिमा केवल परलोक तक सीमित नहीं, बल्कि यह लोक-कल्याण और राष्ट्रनिर्माण तक का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।
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