Tuesday, 3 March 2020

Sri Chaitanya



श्री चैतन्य  महाप्रभु 



      प्रभु श्री चैतन्य देव जी के नाम सुन ते ही कानो में उन की महामंत्र की ध्वनि गूंजने लगता है। वह है -

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे 
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।

इसे तारकब्रह्ममहामंत्र कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया है |
और एक मंत्र -  
कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, पाहियाम। राम राघव, राम राघव, राम राघव, रक्षयाम॥

      इनके द्वारा प्रचारित  यह भक्ति गंगा पता नहीं अब तक कितनो को पवन कर गया। और आज भी सुदूर पश्चिम देशों तक प्रसार हो चुका है।
हम बचपन से जब बड़े हुए तब उन के बहु आयामी प्रतिभा के बारे में और भी जान कारी मिली। और जब आश्रम जीवन मे रहकर साधना में लगे। उनके द्वारा की गई साधना और भक्ति हमारे लिए राह बन गयी। उन के अनेको प्रतिभा मेसे जिसपे हमने दृष्टिपात की है वो है-
  • भक्ति आंदोलन  के वो सूत्रधार ,युग स्रष्टा व् दार्शनिक|
  • इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी,| 
  •  राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया|
  • सन १५१५ में विजयादशमी के दिन वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। और  विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया | गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता | 
  • वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं |
  • इनके  नाम विश्वम्भर मिश्र,निमाई पण्डित, गौराङ्ग महाप्रभु, गौरहरि, गौरसुंदर, श्रीकृष्ण चैतन्य भारती आदि भी है |
  • आध्यत्मिक जीवन में सर्वप्रथम   इनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा। बाद में सन १५१० में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा
  • सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने - इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।
  • गौरांग जब पहली बार जगन्नाथ मंदिर पहुंचे,वहां  सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु की प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर शिष्य बने और   उन्हें अपने षड्भुजरूपका दर्शन कराया। 
  • उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट, गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव ने इन्हें श्रीकृष्ण का अवतार माना और इनका अनन्य भक्त बन गया।[
  • अपने जीवन के अंतिम वर्ष जगन्नाथ पुरी में रहकर बिताएं। यहीं पर सन १५३३ में ४७ वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन उन्होंने श्रीकृष्ण के परम धाम को प्रस्थान किया।

इनके विचारों का सार यह है कि:-

     श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौन्दर्य हैं, प्रेमपरक है। उनकी तीन शक्तियाँ- परम ब्रह्म शक्ति, माया शक्ति और विलास शक्ति हैं। विलास शक्तियाँ दो प्रकार की हैं- एक है प्राभव विलास-जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण एक से अनेक होकर गोपियों से क्रीड़ा करते हैं। दूसरी है वैभव-विलास- जिसके द्वारा श्रीकृष्ण चतुर्व्यूह का रूप धारण करते है। चैतन्य मत के व्यूह-सिद्धान्त का आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूल शक्ति है और वही आनन्द का कारण है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा है। राधा ही कृष्ण के सर्वोच्च प्रेम का आलम्बन हैं। वही उनके प्रेम की आदर्श प्रतिमा है। गोपी-कृष्ण-लीला प्रेम का प्रतिफल है।






**********




No comments:

Post a Comment